श्रीमद्भगवदगीता श्रृंखला भाग 2, अध्याय – 1 : संशय और विषाद – अर्जुन का और हमारा

शत्रु की पहचान
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गीता का पहला अध्याय गीता का प्रवेश द्वार है। गीता अपने समय के जीवन के सबसे बड़े प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करती है। उस समय के यह उत्तर और गीता के सिद्धांत तत्कालीन मानवीय जरूरतों को पूरा करने के लिए थे। आज के समय में यह कितने प्रासंगिक हैं यह केवल गीता के सिद्धांतों पर ही निर्भर नहीं करता वरन इस बात पर भी निर्भर करता है की उस समय जीवन के मूल प्रश्न क्या थे? अगर उस समय के प्रश्न ही आज भी हमारे सामने मुंह बाए खड़े हैं तो ठीक-ठाक संभावना बन जाती है की उस समय के सिद्धांत और उत्तर किसी सीमा तक आज की समस्याओं का भी समाधान कर पाएं। जीवन का स्वरूप बदलने से कई प्रश्नों के स्वरूप बदल गए हैं और आधुनिक युग की चुनौतियों ने कई नवीन प्रश्न भी मानव समाज के सामने खड़े किए हैं। हमें यह देखना होगा कि नए लगने वाले यह प्रश्न कहीं पुराने सवालों के ही परिवर्तित रूप तो नहीं हैं और क्या पुराने उत्तर उसी रूप में लागू किए जा सकते हैं या सिद्धांतों और गीता में विद्यमान समाधान का युगानुरूप विश्लेषण भी आवश्यक है।

श्रीमद भगवत गीता महाभारत के भीष्म पर्व में 25 वां अध्याय है। महाभारत के युद्ध के दसवें दिन जब भीष्म शरसैया पर चले गए तब संजय ने धृतराष्ट्र को यह समाचार सुनाया। इसके बाद धृतराष्ट्र ने विस्तृत विवरण सुनने की इच्छा प्रकट की और संजय ने पूरा वर्णन किया। युद्ध आरंभ होने से पूर्व पांडव प्रतिशोध से भरे हुए थे और अर्जुन उत्साह के साथ युद्ध लड़ने को उद्यत था। उसका यह उत्साह वैसा ही है जैसा हम सभी में किसी नए कार्य का मनोरथ बनाने पर आता है। वह समय बड़ी रोमांच का होता है। लगता है कि सफलता बस एक हाथ की दूरी पर ही है लेकिन केवल मनोरथ से तो कार्य सिद्ध नहीं होते –

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

( काम तो उद्यम से ही होते हैं केवल मन बना लेने से कुछ नहीं होता। शेर जैसे माहिर शिकारी को भी शिकार करना पड़ता है। सोते हुए शेर के मुंह में हिरण कभी भी अपने मन से आकर नहीं बैठ जाता। )

अर्जुन विश्व विजयी योद्धा है लेकिन हर रण शून्य से लड़ना शुरू करना पड़ता है और पुरानी सभी विजय गाथाएं पीछे छूट चुकी होती हैं।

जब मनोरथ को कार्य रूप में परिणत करने के लिए कर्म क्षेत्र रूपी रण क्षेत्र में उतरते हैं तब वास्तविकता अपने कठोर रूप में सामने आती है। वास्तविकता का भान होने पर मन में संशय उत्पन्न होता है। जो मंसूबा बांधा है, उसके प्रति संकल्प विकल्प होने लगते हैं। हम सोचने लगते हैं कि जो काम हम करने जा रहे हैं वह करणीय है भी या नहीं। उस काम को करने की जो कीमत हमें चुकानी होगी परिणाम उस कीमत के अनुकूल होगा या नहीं।

जब अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के मध्य पहुंचता है तब उन्हें विकट वास्तव का एहसास होता है दोनों और सगे – संबंधियों की भीड़ और बीच में अर्जुन। अर्जुन जानता है कि वह ज्यादातर विपक्षी योद्धाओं से जीत सकता है। अलग-अलग अवसरों पर उनमें से अधिकांश को पहले ही हरा भी चुका है। लेकिन यह रण अलग है यह जय पराजय का नहीं बल्कि जीवन मृत्यु का रण है। यह संघर्ष सबसे बड़ा संघर्ष है जिसके बाद कुछ भी पहले के समान नहीं रह जाएगा। कितने ही शत्रु जिन्हें अर्जुन अपना समझता आया है, रणभूमि में उसके हाथों मृत्यु पाएंगे और कितने ही उसके अपने पांडवों की ओर से लड़ने वाले योद्धा भी वीरगति को प्राप्त होंगे। यह अर्जुन के जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष है जिसमें उसका सब कुछ दांव पर है।

हम सभी को जीवन में कभी ना कभी ऐसे संघर्ष से गुजरना पड़ता है जिसमें हमारा सब कुछ दाँव पर लग जाता है। हमारा संघर्ष प्रायः युद्ध की तरह स्पष्ट और प्रबल नहीं होता ना ही महज 18 दिन चलने वाला होता है। शत्रु और मित्र भी साफ नहीं होते। कई बार जिन्हें हम मित्र समझते हैं वह हमारे शत्रु होते हैं और जो शत्रु लगते हैं वह मित्रवत हो सकते हैं, सच्चे हितैषी सिद्ध हो सकते हैं। यह बात जितनी बहिर्जगत के लिए सत्य है उतनी ही अंतर्जगत के लिए भी सत्य है।

हमारी बहुत सी ऐसी आदतें और बातें जो वैसे बहुत सुखकर लगती हैं वास्तव में घुन की तरह अंदर से खोखला करने वाली होती हैं। सुबह देर तक सोना, मित्रों के साथ घंटों बैठकर गप्पें मारना, टीवी और मोबाइल से चिपके हुए घंटों बिता देना किसे सुखकर नहीं लगता। लेकिन यह आदतें अंत में शत्रु की भांति दुखकर सिद्ध होती हैं। ऐसे ही सुबह उठकर व्यायाम करना, रोज स्वाध्याय करना, अपनी डायरी नियमित रूप से लिखना, अपने खर्चों को नियंत्रण में रखना यह सब प्रथम दृष्टया ही परेशान करने वाली चीजें लगती हैं। इसीलिए इन सब कामों को हम हमेशा कल से करने की योजना बनाते हैं और इससे पहले वाली सुखकर लेकिन हानिकारक बातों को आज करते हैं। और कल कभी आता ही नहीं है।

मेरा और आपका संघर्ष इस मामले में अर्जुन के संघर्ष से भी जटिल लग सकता है कि हमारा शत्रु हमारे सामने नहीं खड़ा है। उसे हमें पहचानना है। अर्जुन के लिए तो शत्रु ठीक सामने खड़ा है। लेकिन उसे भी शत्रु दिख कहाँ रहा है। उसे तो पितामह, चाचा, ताऊ और गुरु ही दिख रहे हैं। शत्रु की पहचान ही नहीं हो रही है। वास्तव में जो अर्जुन की समस्या है वही हमारी भी समस्या है । शत्रु तो सम्मुख ही है लेकिन शत्रु की पहचान नहीं हो रही है। शत्रु सम्मुख है , शत्रु बगल में बैठा है किंतु हम शत्रु को पहचानने के लिए तैयार ही नहीं। वह तो हमें बड़ा अपना और बड़ा प्यारा लगता है सबसे आनंदप्रद लगता है।

गीता की पहली सीख यही है कि हम जीवन के प्रश्नों को समझ पाएं और शत्रु और मित्र का भेद समझ पाएं। सुखकर लगने वाली बातों को गहराई से देख कर समझ पाएं कि यह अल्पकालिक सुख कहीं लंबे दुःख का कारण तो नहीं बनेगा। जीवन को समझने के लिए एक दृष्टि विकसित हो पाए, यह सार्थक जीवन जीने के लिए आवश्यक है। गीता इस दृष्टि के विकास का मार्ग दिखाती है और यह भी बताती है कि क्या और कैसे देखना है।
अभी इतना ही शेष फिर कभी।

विनीत त्रिपाठी

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